“मैं अवसादित नहीं हो सकती हूँ। मैं दलित हूँ।”

இந்திய அறிவியல் கல்வித்துறை கட்டமைக்கப்பட்டிருக்கும் விதத்தால், அதிலுள்ள ஆய்வு அறிஞர்களுடைய மன நலன் பாதிக்கப்படும் ஆபத்து உள்ளதாகச் சொல்கிறது இந்தச் செய்தியறிக்கை.
By | Published on Aug 20, 2021
बाइलाइन: विजेता कुमार

2019 मिलेनियल (1980 के बाद पैदा हुए लोग) अचंभों का वर्ष है। इसी वर्ष वित्त मंत्री निर्मला सीथारमण ने ऑटोमोबाइल क्षेत्र के संकट के लिए ओला/उबेर पर मिलेनियल्स की निर्भरता को जिम्मेदार ठहराया है। यह वह वर्ष भी है जिसमें मिलेनियल्स को सक्रिय होने के लिए, राजनीतिक उत्साह दिखाने के लिए, उदासीन नहीं होने के लिए, एवं सबसे महत्वपूर्ण बात, मानसिक बीमारी से जुड़े कलंक को हटाने का श्रेय दिया जा रहा है।

हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि जब हम मिलेनियल्स की बात करते हैं तब हम किसके बारे में कल्पना कर रहे हैं। इससे पहले कि “मिलेनियल्स” शब्द के उपयोग को भारत में सार्वजनिक मान्यता मिले, यह शब्द ‘एडल्टिंग’ और ‘मानसिक बीमारी’ जैसे शब्दों की तरह उस खतरनाक क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है जहाँ शब्दों एवं अवधारणाओं को सवर्ण बनना पड़ता है। जब हम यहाँ मिलेनियल्स कहते हैं तो क्या हम एक ऐसे समूह का उल्लेख कर रहे हैं जो अनिवार्य रूप से अंग्रेजी बोलता है, राजनीतिक रूप से सही है और प्रमुख-जाति का है?

तो दलित मिलेनियल्स कहाँ हैं? क्या वे मानसिक बीमारी के बारे में वैसे ही खुलकर बात करते हैं जैसे अन्य मिलेनियल्स करते हैं? क्या उन्हें भी वही मानसिक बीमारियां हैं जो दूसरों को होती हैं? अगर हम मनोविज्ञान और उसके अभ्यास में उत्तर ढूंढ रहे हैं तो हमारे पास बहुत कम जानकारी है।

आठ साल पहले एक छात्रा के रूप में मैं जिस मनोविज्ञान को जानती थी, और अब मैं जिस मनोविज्ञान को जानती हूँ, दोनों में ज्यादा अंतर नहीं है। एकमात्र अंतर मानसिक बीमारी को अब राष्ट्रीय महत्व देने में बढ़ती हुई रुचि प्रतीत होता है। ऐसा जातिवाद को अव्यतिक्रमी राष्ट्रीय स्थिति की मान्यता देने के प्रति निष्क्रिय-आक्रामक प्रतिरोध के साथ किया जाता है।

परामर्श प्रथाओं तथा कक्षाओं में जाति के प्रति संवेदनशीलता का उल्लेख सामाजिक-आर्थिक संदर्भों की आड़ में किया जाता है जहाँ जाति आसानी से वर्ग बन सकती है। जैसा कि इस लेख में सटीक रूप से कहा गया है – “जातिवाद की व्यापकता के कई आयाम हैं और इन संस्थाओं में इसकी दैनिकता को नियमों और बाध्यताओं से रोका नहीं जा सकता है।” यह विचार शहरी कक्षाओं में विषैले रूप से व्याप्त है कि जाति पर आधारित भेदभाव अतीत की बात है और आजकल की वास्तविक समस्या केवल वर्ग है। बहुत बार इन चर्चाओं में जाति केवल तभी उभरती है जब आरक्षण विरोधी सुदृढ़ भावनाओं को अभिव्यक्‍त करने की जरुरत होती है।

मानसिक बीमारी को समझने के लिए हमारे पास एक पश्चिमी नियमावली है जिसकी रीढ़ की हड्डी में इतना दम नहीं है कि वह जाति सम्बन्धित मानसिक मुद्दों को संबोधित कर सके। (कक्षाओं, लेक्चर और आजीविका के क्षेत्रों में) शैक्षणिक समुदाय में मनोविज्ञान और परामर्श का जैसे अभ्यास किया जाता है उसकी समस्या यह है कि उनपर विज्ञान के रूप में इसका विपणन करने का जुनून सवार है।

यह समझने के बजाय कि मानसिक बीमारी सामाजिक वास्तविकताओं से उत्पन्न हो सकती है, सार्वभौमिक समस्या के रूप में इसका लगातार वर्णन किया गया है। और चूँकि हम भारत के बारे में बात कर रहे हैं तो क्या यहाँ कोई भी ऐसी सामाजिक वास्तविकता है जो जाति की वास्तविकता से बड़ी है?

शहरी दलित छात्र कभी-कभी अपनी पहचान से अनजान रहकर बड़े होते हैं लेकिन उन्हें हमेशा यह संदेह रहता है कि उनमें और उनके प्रति दूसरों के व्यवहार में कुछ है जो बहुत गलत है। यदि वे इतने भाग्यशाली हों कि वे अम्बेडकर की खोज कर पाएं या उनके अम्बेडकरवादी दोस्त हों तो अतीत की सभी असफल मित्रताएं, अपवाद और उत्कण्ठाएं समझ में आने लगती हैं। लेकिन अक्सर एक शहरी दलित के लिए उसकी पहचान की पुष्टि आमतौर पर तब होती है जब उसे महसूस कराया जाता है कि वह जहाँ है वह उस स्थान के लायक नहीं है – और हमेशा इस खबर को पहुँचाने वाले सवर्ण ही होते हैं।

परामर्श प्रथा में क्या ऐसे संभाषण मौजूद हैं जो दूसरों के साथ एक ही कक्षा में बैठे दलित छात्र को यह समझने में मदद कर सके कि यही उसकी मानसिक बीमारी है? साथ ही अगर एक सवर्ण छात्र को यह विश्वास करने के लिए प्रेरित किया गया है कि ना केवल वह अवसादित है बल्कि उसे अवसादित होने का अधिकार भी है तो इस अधिकार को जाति के विशेषाधिकार का कितनी बार सामना करना पड़ता है?

ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब आज के शैक्षणिक समुदाय के मनोवैज्ञानिकों / परामर्शदाताओं के पास नहीं हैं और इससे भी बदतर यह बात है कि वे ऐसे सवाल पूछने की परवाह भी नहीं हैं। इसकी विस्तीर्णता को समझ पाना बहुत मुश्किल है। अगर कोई ऐसी चीज है जो लोगों को समान बनाती है, या कम से कम ऐसा भ्रम पैदा करती है, तो वह मानसिक बीमारी है। इस संदर्भ में हर कोई एक समान है।

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ट्रेवर नोआ के साथ ‘द डेली शो’ में ओपराह हमें उस समय के बारे में बताती है जब वह एक अफ्रीकी लड़की को समझाने की कोशिश कर रही थी कि वह अवसाद से पीड़ित है। लेकिन उस लड़की ने कहा, “मैं अवसादित नहीं हो सकती हूँ। मैं अफ्रीकी हूँ।” ओपराह ने बाद में कहा कि वह अफ्रीकी महिलाओं को यही बताने की कोशिश कर रही थी कि वे भी अवसादित हो सकती हैं।

यह देखकर मुझे अपने परिवार की बुजुर्ग महिलाओं को समझने के लिए एक भाषा मिली। यहाँ मुद्दा यह कहना नहीं है कि हम भी अवसाद से पीड़ित हो सकते हैं। कम से कम मेरे लिए मुद्दा यह है कि मेरे परिवार की बुजुर्ग महिलाओं ने लड़ाई लड़ी है, वे खुद के साथ लंबी लड़ाई लड़ रही हैं और उससे भी ज्यादा लंबी लड़ाई वे अपने आस-पास की दुनिया से बिना किसी संभाषण या बारीकियों (सुप्रसिद्ध सवर्ण शब्द) के साथ लड़ रही हैं।

यहाँ तर्क यह भी नहीं है कि दलित महिलाओं की मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों तक पहुँच नहीं है (जो की एक पूरी तरह से उचित दावा है)। तर्क दरअसल यह है कि दलित महिलाएँ उस चुप्पी में जी रही है जो यह जानने के बाद उजागर होती है कि किसी भी तरह के मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी उपचार उन्हें एक सवर्ण दुनिया से बचा नहीं सकते हैं। और यह की अभी तक के इस पाठ का सार यही समझना था कि अगर आप एक सवर्ण दुनिया में जी रहे हैं तो आप अव्यतिक्रमी रूप से पहले से ही मानसिक रूप से बीमार हैं – चाहे आप जो भी हों – सवर्ण, शूद्र या दलित।

इस परिस्थिति में किस तरह के परामर्श या चिकित्सा से मदद मिल सकती है?

यह विश्वास करना कि कोई और आपके लिए आपका काम कर देगा – जिसके लिए आपको ना केवल भुगतान करना होगा बल्कि आपको दवाइयों के भी अधीन होना होगा – यह एक समय-परीक्षणित सवर्ण प्रथा है।

मेरी जाति की महिलाओं से मैंने सीखा है कि यह वाक्यांश ‘मैं अवसादित नहीं हो सकती हूँ। मैं दलित हूँ’ कुछ ऐसा नहीं है जिसे ठीक करने की आवश्यकता है – जरुरत है इसपर लगी धूल को झाड़ने और इसे गर्व से अपनाने की। मेरे पिता की किशोरावस्था भी कुछ इसी तरीके से गुज़री थी। उन्होंने अपने छात्रावस्था के अधिकांश दिन खुद को बहुत गहराई में फिसलने से बचाने में बिता दिए थे। जब आप अपने यौवन का हर कदम फूंक-फूंक कर रखते हैं और इस बारे में सतर्क रहते हैं कि किसी भी तरह से किसी को ठेस ना पहुँचे, खुद पर दूसरों का ध्यान ना चला जाए और पेट भरने के लिए खाना कहाँ से आएगा, तो अवसाद के लिए समय नहीं बचता है। यदि आपका सारा ध्यान इन बातों पर केंद्रित रहता कि कहीं आपकी हत्या ना हो जाए, आपको दबा ना दिया जाए या किसी कोने में धकेल ना दिया जाए – तो यही आपका अवसाद बन जाता है।

जब मैं बड़ी हो रही थी तो मेरे पिता मेरे मनोदशाओं के प्रति हर वक़्त चौकन्ना रहते थे।  अगर मैं बिना आभार व्यक्त किए खाना खा लेती तो वे बहुत गुस्सा हो जाते थे। उन्होंने हमें ऐसी सभी चीजें दीं जो बड़े होने के दौरान उनके पास नहीं थीं। मगर साथ ही वे इस बात का भी विशेष ध्यान रखते थे कि कहीं हम बिगड़ न जाएँ। वे लगातार और कभी-कभी आक्रामक तरीकों से हमें हमारे ध्यान का केंद्रबिंदु बनाते रहते थे– हमारे बैठने, सोने, खाने, दाँत साफ करने या पढ़ने के तरीके आदि कैसे थे।

दलित अभिभावकता एक अद्भुत रूप से अज्ञात क्षेत्र है। दलित माता-पिता के लिए अपने बच्चों की एक ऐसी दुनिया में परवरिश करना भयावह होगा जहाँ के लोगों पर उनके बच्चों को यह विश्वास दिलाने का भूत सवार है कि वे जिन कारणों से अवसादित/उत्कंठित हैं, उन कारणों का कुछ नहीं किया जा सकता है। जब वे शहरों में आते हैं तो ऐसे कोई पूर्ववर्ती नहीं होते हैं जिनके कदमों पर चला जा सके या कोई नियमावली नहीं हैं जो उन्हें इन बातों के जवाब दे सकें कि पड़ोसियों को क्या कहना चाहिए या अभिभावक-शिक्षक बैठक में कैसे पेश आना चाहिए या अगर आपकी बच्ची हमेशा मायूस रहती है तो उसे कहाँ ले जाना चाहिए?

केवल एक चीज जो वे कर सकते हैं वह है सवर्ण अभिभावकता की नकल। और जब वे ऐसा नहीं कर पाते तो वे सिर्फ वृत्ति पर भरोसा कर सकते हैं (जो कि अधिकांश अभिभावकता के मामलों की हकीकत है)। लेकिन यह डरावना है क्योंकि वे हमें प्रतिस्पर्धा करने के लिए नहीं बल्कि एक सवर्ण दुनिया में जीवित रहने के लिए तैयार करते हैं, इसलिए वे हमें जाति से दूर रखते हैं। उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि हम कौन हैं या दुनिया हमारे बारे में क्या सोचती है। वे हमारे सामने आपना सबसे अच्छा संस्करण रखते हैं और प्रार्थना करते हैं कि दुनिया भी ऐसा ही करे।

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मेरी नानी को यह बताते हुए हँसी नहीं आती है कि हम जीएसबी (गौड़ सारस्वत ब्राह्मण) तब बने जब एक ब्राह्मण पुजारी ने अपनी तर्जनी उंगली से उनकी हथेली दबाते हुए कुछ मंत्रों का उच्चारण किया। उन्हें यह बताते हुए हँसी नहीं आती है कि नानाजी ने अपनी मौत के एक साल पहले अपने कमरे की दीवार पर अपनी मौत की तारीख लिख दी थी। वास्तव में मैंने उन्हें जब से देखा है उन्होंने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा है जिसपर उन्हें खुद यकीन न हो।

लेकिन पिछले हफ्ते जब वह हमारे साथ रहने आई तो मेरी माँ ने मुझे बताया कि मेरी नानी का मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है। वे खुद से घंटों बातें करती हैं, एक कमरे से दूसरे कमरे में मुट्ठी भर कर चीनी ले जाती हैं और उसे ऐसे खाती हैं जैसे पानी पी रही हों, दवाइयाँ लेने के बारे में झूठ बोलती हैं और एक ही साँस में कहती रहती कि लोग उनके पैसे चुरा रहे हैं या उनसे उधार ले रहे हैं- मानो कि दोनों का अर्थ एक ही हो।

“अवसादित लोग ऐसा ही करते हैं” मेरी माँ ने कहा।

जब मैंने उनसे पूछा कि मेरी नानी खुद से क्या बातें करती हैं तो उन्होंने बताया कि वे ज्यादातर उन लोगों को गाली-गलौज देती हैं जो उनकी कल्पना में अब भी जिन्दा हैं- जैसे पुराने रिश्तेदार, पड़ोसी, पति, आदि। तब उन्होंने मुझे जल्दी से एक विलंबित भूमिका दी: “वे बहुत कुछ से गुज़री हैं। पापा के निधन के पहले भी और बाद में भी। उन्होंने हमें अकेले पाला है।”

यह अम्मा का मुझे और खुद को यह याद दिलाने का तरीका था कि नानी की इस हालत के लिए कोई दवा उपलब्ध नहीं है। 

अन्य जगहों पर मैंने लिखा है कि जाति को हम किस तरह से अपने शरीर में बसा लेते हैं और इससे क्या होता है। अवसाद ही की तरह जाति और इसके लक्षण हकदार नजरों के लिए अदृश्य हैं। लेकिन अवसाद के विपरीत जाति से निपटने में मदद करने के लिए ना तो कोई चिकित्सक है और ना ही कोई नुस्खा।

मेरी नानी यह स्वीकार नहीं कर पाई कि उन्हें मंदिरों में प्रवेश से वंचित किया जाता रहा जबकि वे मंदिरों में जाने के लिए सबसे अधिक व्याकुल थीं। यह बताने के बजाय वे मुझे यह बताती हैं कि हालात अब बहुत बेहतर हैं, कि एक समय था जब उनकी सास के मंदिर में प्रवेश करने पर पुजारियों ने उन्हें बालों से खिंच कर निकाल दिया था और लोग उन्हें मारने के लिए पत्थर हाथ में लिए खड़े मिलते अगर वे मंदिर के आस-पास भी नज़र आती थीं। और यह कि “अब हालात वैसे नहीं रहे” और इसके लिए अपना आभार व्यक्त करतीं हैं।

मेरे कुछ छात्र जिन्हें धीरे-धीरे पता चल रहा है कि वे दलित हैं उन्हें इस आघात से निपटना बेहद कठिन लग रहा है। वे एक अच्छा जीवन जीने के लिए दोषी महसूस करते हैं और इस बात से डरते हैं कि इस आविष्कार का क्या मतलब हो सकता है क्योंकि वे लगातार उन दलित लोगों के बारे में सोच रहे हैं जो उनसे अधिक पीड़ित हैं और इससे उन्हें लगता है कि वे किसी भी चीज़ के लायक नहीं हैं।

जब आप अपना जीवन यह मान कर बिताते हैं कि दयालुता पर किसी दूसरे व्यक्ति का आपसे अधिक हक है तो यह एक ऐसा आघात बन जाता है जिसके लिए कोई ऐसा व्यक्ति ‘परामर्श’ नहीं दे सकता है जिसकी खुद की जाति की समझ की शुरुआत और अंत ‘जाति’ शब्द के साथ ‘पंथ’ शब्द को जोड़कर होती है।

एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहाँ हम सब मिलकर यह समझ सकें कि इन महिलाओं ने तब जो किया था या मेरे छात्र अब जो कर रहे हैं वह दलित लचीलेपन के रूमानीकरण या उत्पीड़न के बिल्ले के सुखद क्षेत्र से परे है। वे लड़ रहे हैं – चाहे वे इसे एक मानसिक बीमारी के रूप में पहचान पाएं या नहीं।

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अपने स्कूल के अधिकांश वर्षों के दौरान मैं नींद में थी। अधिकतर समय एक अपरिभाष्य शून्यता से निपटने में बीत गया था। इसका स्त्रोत था अंदर से मृत होने का वह एहसास जो कक्षा के अंदर और बाहर महसूस होता था। क्योंकि मेरी माँ सवर्ण व्यवहार को तेजी से निरीक्षित कर सकती है, वह मेरे पिता को मुझे मनोचिकित्सक के पास ले जाने के लिए कहती रही और वे इस यह कहकर खारिज कर देते कि “उसे करने के लिए काम दो”।

मुझे खाली बैठा हुआ देखते साथ मेरे पिता मुझे हर बार घर के छोटे-मोटे कार्यों की तरफ धकेल दिया करते थे- ”जाओ चाय बनाओ, पौधों को पानी दे आओ, बाथरूम को साफ करो।” मैं सोचती थी कि अगर मैं एक लड़का होती तो वे मुझे ये सब करने को नहीं कहते और इसी सोच ने मेरे अंदर इतना गुस्सा भर दिया था कि अपने मन में अपने पिता के प्रति घृणा के साथ मैं बड़ी हुई। अब मुझे समझ आता है कि अपने किशोरावस्था की एक लंबी अवधि मैंने अपने पिता के प्रति सवर्ण तरीके से व्यवहार करके बिता दिया था। उन्होंने तब मुझे मनोरोग / मनोविज्ञान से दूर रख कर जो किया था उसने मुझे बचा लिया। जब भी वे मुझे काम की तरफ धकेलते थे वे मुझे मुझसे दूर किया करते थे। इसके लिए मैं आभारी हूँ।

लोगों का यह कहना कि यदि आप खुद को काम में व्यस्त रखते हैं तो आप अवसाद से दूर रह सकेंगे – हाँ, ऐसा कहना बेवकूफी है। हाँ, ऐसी सोच हकदारी की उस जगह पर विराजमान होने से आती है जहाँ यह पता नहीं होता कि अवसाद का एहसास कैसा होता है। लेकिन यह मेरे पिता ने मुझसे कहा था और इसने मुझे तब बचा रखा था जैसे कि इसने मुझे अब बचा रखा है।

सवर्ण होने के कारण मानसिक बीमारी के साथ निबाह करना आसान हो जाता है। दलित लोगों में मानसिक बीमारी से जूझने का सामर्थ्य नहीं होता है। इसका जवाब कतई यह नहीं है “आओ, तुम्हें अवसादित होने का/महसूस करने का अधिकार है। एक चिकित्सक के पास जाओ, अपनी देखभाल करो।” मेरे लिए इसका जवाब वही है जो मेरे पिता ने मुझे बताया था और जो अम्बेडकर ने हमें सुझाया था: “मुझे एहसास हुआ है कि भक्ति के माध्यम से उत्कृष्टता प्राप्त की जाती है। भक्ति का अर्थ मेरे लिए किसी जंगल में चले जाना और वहाँ ध्यान करना नहीं है। मेरे विचार में भक्ति पीड़ा को सहने और काम करते रहने की चरम शक्ति है।”

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निबंध Shall we Leave it to the Experts? (क्या हम इसे विशेषज्ञों पर छोड़ दें?) में लेखिका अरुंधति रॉय ने कहा है कि भारत के लोग दो ट्रकों (एक बड़ा, एक छोटा) पर लदे हुए लगते हैं और “वे विपरीत दिशाओं में दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े हैं। नन्हा काफिला दुनिया के शीर्ष के पास एक शानदार गंतव्य की ओर अपने रास्ते पर है। दूसरा काफिला अंधेरे में पिघल कर गायब हो जाता है।”

यह निबंध 2002 में लिखा गया था। 2019 में उन ट्रकों में से एक दुनिया के शीर्ष को पार कर गया है और चंद्रमा पर उतर रहा है/खो गया है और दूसरा पिघल गया है।

2017 में एक दलित महिला सम्मेलन में कार्यकर्ता रूथ मनोरमा ने महिलाओं से भरे एक कमरे में यह सवाल पूछा था – “जब रोहित वेमुला की मृत्यु हुई थी तो ये कॉलेज के परामर्शदाता और चिकित्सक कहाँ थे?”

ना तब किसी को पता था और ना अब किसी को पता है।

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लेखक जीवनी: विजेता कुमार बैंगलोर की एक शिक्षिका और लेखिका हैं। वह चाय पीने और ट्विटर पर हँसने में काफी समय बिताती है। आप उन्हें @rumlolarum पर फॉलो कर सकते हैं या उनके काम के बारे में पढ़ने के लिए rumlolarum.com पर जा सकते हैं।

This piece is part of a series supported by India Alliance.

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