बलिदान के विज्ञान के खिलाफ

रिद्धि दस्तीदार द्वारा लिखित ट्रिगर की चेतावनी: इस रिपोर्ट में छात्रों द्वारा आत्महत्या और अवसाद जैसे मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों पर चर्चा की गई है। यदि आपको सहायता/राहत की जरुरत है तो यहाँ दी गई संसाधनों की सूची देखें। जब चूहों को किसी प्रयोग के लिए मारा जाता है तो प्रयोगशाला की टिप्पणियों में इसका उल्लेख […]
By | Published on Aug 20, 2021
रिद्धि दस्तीदार द्वारा लिखित
ट्रिगर की चेतावनी: इस रिपोर्ट में छात्रों द्वारा आत्महत्या और अवसाद जैसे मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों पर चर्चा की गई है। यदि आपको सहायता/राहत की जरुरत है तो यहाँ दी गई संसाधनों की सूची देखें।

जब चूहों को किसी प्रयोग के लिए मारा जाता है तो प्रयोगशाला की टिप्पणियों में इसका उल्लेख आधिकारिक तौर पर ‘कुरबान’ होने के रूप में दर्ज किया जाता हैं। विज्ञान के रास्ते पर चलने के लिए कुछ हद तक अनासक्त होना पड़ता है। विज्ञान के अनुसंधान विद्वानों के साक्षात्कार से पता चलता है कि यह अनासक्ति वैज्ञानिक समुदाय के भीतर भी फैली हुई है।

मैंने 8 संस्थानों के विज्ञान के 20 वर्तमान और पूर्व विद्वानों से बात की – आईआईटी मद्रास, आईआईटी बॉम्बे, एनसीबीएस, भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), सैद्धांतिक विज्ञान के लिए अंतर्राष्ट्रीय केंद्र (आईसीटीएस), गणितीय विज्ञान संस्थान (आईआईटीसी), भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईएसटी) और पॉन्डिचेरी विश्वविद्यालय – सिर्फ एक प्रश्न के उत्तर के लिए:

आज के दिन भारतीय विज्ञान के बारे में ऐसा क्या है जो विद्वानों को असमर्थित बनाता है और मानसिक स्वास्थ्य को खतरे में डालता है – बुरे से बुरे हालात में आत्महत्या में योगदान देता है?

उनकी कथाएँ एक तनावपूर्ण, पृथक्कारी, गहरी पदानुक्रमिकता और असमर्थित शैक्षणिक वातावरण की ओर संकेत करती है। ऐसा जान पड़ता है मानो इस वातावरण की रचना मानसिक बीमारी को संचालित करने के लिए ही किया गया हो और अभिनव अनुसंधान (आंतरिक रूप से रचनात्मक खोज) के लिए आवश्यक पर्यावरण के बिलकुल प्रतिकूल हो।

एक लंबी चुप्पी

सतह पर लगता है कि विज्ञान के सभी विद्वान व्यक्तिगत मामलों के कारण अपने जीवन को ख़त्म करने का निर्णय लेते हैं और इसका शैक्षणिक समुदाय से कोई लेना-देना नहीं होता है। इस अस्पष्ट चुप्पी की लम्बी परंपरा 1945 में सी।वी। रमन के प्रयोगशाला की एक शानदार स्नातक छात्रा, सुनंदा बाई की आत्महत्या से चली आ रही है।

पाँच महीने पहले एनसीबीएस के एक विद्वान् ने आत्महत्या कर ली। एनसीबीएस एक छोटा, उत्कृष्ट और अपेक्षाकृत रूप से नया संस्थान है। हालाँकि इस तरह की घटनाएँ शैक्षणिक समुदाय में नई नहीं हैं, किसी ने भी यह अपेक्षा नहीं की थी कि ऐसी घटना इस छोटे से उदार-पंथी समुदाय में हो सकती है।

नम्रता* और राजेश* करीब-करीब एक ही साथ एनसीबीएस में पीएचडी विद्वानों के रूप में दाखिल हुए थे और एक करीबी दोस्तों के समूह का हिस्सा थे। राजेश ने मुझसे कहा एनसीबीएस जैसे संस्थान में, “सब कुछ आपके पीएचडी के इर्द-गिर्द घूमता है। तनाव से भरे काम के दिनों में और बिना किसी सीमा के, आप अपना अधिकांश समय परिसर में बिताते हैं; आपके दोस्तों का समूह और समर्थन प्रणाली काफी हद तक परिसर और अक्सर आपके प्रयोगशाला के साथियों से ही बनता है”। जब काम के दौरान कुछ न कुछ गलत होने लगता है तो यह आपके जीवन में एक बड़े व्यवधान की तरह लगने लगता है।

नम्रता को अपनी पहली प्रयोगशाला में दिक्कत महसूस हो रही थी इसलिए उसने बीच ही में प्रयोगशाला बदल ली। यह अनूठा जरूर है, पर अनसुना नहीं।

राजेश ने जैसा अनुभव किया था, पुराने पीआई अपनी प्रयोगशालाओं में अनुसंधान विद्वानों को प्रेरित करने के लिए अक्सर बारीकी से निरीक्षण करते थे। उसने गौर किया कि इसके विपरीत, सहायक पीआई छुट्टी लेने के कारण अपराधबोध महसूस करने के बजाय मानसिक बीमारी को शारीरिक बीमारी की तरह देखते हैं।

नम्रता का मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का इतिहास था। पर वह अकेली नहीं थी। उसके आस-पास उसी के जैसे और भी कई लोग थे। “लगभग हर पीएचडी छात्र को आत्म-संदेह होता है, जैसे कि क्या मैं यहाँ रहने के लायक हूँ? जब पीआई के भी कुछ ऐसे ही बयान होते हैं तो यह उन तकलीफों को और भी ज्यादा बढ़ा देता है जिससे वे पहले से जूझ रहे होते हैं” राजेश ने कहा।

नम्रता परिसर के बाहर मानसिक चिकित्सक से मिल रही थी। उसकी हालत पहले से बेहतर लग रही थी पर एक दिन अचानक वह प्रयोगशाला नहीं आई। वह फोन का जवाब नहीं दे रही थी, इसलिए राजेश सहित कुछ और लोग परिसर के पास स्थित उसके निवास कारण का पता लगाने के उद्देश्य से गए।

उन्होंने कहा कि बाद में एनसीबीएस ने उन्हें डॉक्टरों और पुलिस से बात करने में मदद की। इस त्रासदी के बारे में एक आधिकारिक ईमेल भेजा गया। राजेश ने कहा कि हालाँकि “बदलाव लाने” पर चर्चा हुई थी, “उस हादसे के पाँच महीने बाद भी असल में कुछ नहीं बदला है”।

इस मुद्दे पर टिपण्णी के लिए मैंने एनसीबीएस के संचार कार्यालय को संपर्क किया। इसका उत्तर मुझे शिक्षाविदों के प्रमुख, मुकुंद थाटई से मिला: “परिसर ने हमेशा परिवर्तन के द्वारा नि:शुल्क और गोपनीय पेशेवर मानसिक स्वास्थ्य परामर्श प्रदान किया है। त्रासदी को मद्देनजर रखते हुए, इन सेवाओं को तुरंत बढ़ा दिया गया था क्योंकि कई छात्रों को समर्थन की जरुरत महसूस हुई है।”

“परिसर समुदाय के सभी सदस्यों को अकेले और समूहों में पेशेवर दुःख परामर्श प्रदान किया गया था। समस्त शिक्षक गण ने परिवर्तन द्वारा आयोजित सत्रों में भाग लिया है। इन सत्रों में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रहे छात्रों को समर्थन देने के लिए तैयार किए गए तंत्र पर विस्तृत निर्देश प्रदान किया जाता है। छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के एक उप-समूह ने ‘लिसनिंग टू कैंपस’ कार्यक्रम शुरू किया है। इसका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य और अन्य मुद्दों से जूझ रहे परिसर समुदाय के सभी सदस्यों के समर्थन के लिए सर्वोत्तम प्रथाओं को इकट्ठा करना, सूचीपत्र में दर्ज करना और प्रसारित करना है।” यह उनकी “कुछ नहीं बदला है” टिपण्णी पर प्रतिक्रिया थी।

इससे तनाव का क्या लेना-देना है?

2017 में जब मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम पारित किया गया था तब आत्महत्या को गैर-क़ानूनी ठहराना बंद कर दिया गया। ऐसा इस धारणा पर आधारित था कि जब तक किसी व्यक्ति पर अत्यधिक तनाव न हो, वह इसका प्रयास नहीं करेगा। विद्वानों के साक्षात्कार से पता चला कि पीआई द्वारा निर्धारित अनुचित अपेक्षाएं, प्रयोगशाला की संस्कृति में असफलता के डर का माहौल, लम्बे समय तक काम करना और अकेलापन सीधे मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ते हैं।

आईएमएससी के एक पूर्व पीएचडी विद्वान ने स्नातकोत्तर छात्रों में “अपर्याप्तता की एक स्थायी भावना” का वर्णन किया। इसमें उसके दूसरे संस्थानों में शोध करने वाले दोस्त भी शामिल थे। एक बलिदान दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने की प्रवृत्ति मौजूद है – “मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य, सामाजिक जीवन” – इन सभी को विज्ञान के आगे कम महत्ता दी जाती है।

मैंने जिन संस्थानों से बात की वहाँ के विद्वान इस भावना से सहमत थे। आईआईएससी के एक पीएचडी स्कॉलर ने कहा, “अगर आप उन्हें प्रयोगशाला में अक्सर नज़र नहीं आते, तो उनकी टिप्पणियाँ शुरू हो जाती है – यहाँ तक कि अगर आपके काम करने का समय अलग-अलग हो तब भी”। उसे एक गंभीर बीमारी ने झकझोर दिया था। वह अस्पताल में तब भी दाखिल थी जब उसे प्रयोगशाला से ‘जल्द ही वापस लौट आने’ के लिए फोन आने लागे थे।

शोध के क्षेत्र से अब निकल चुकी एनसीबीएस की एक पूर्व एमएससी छात्रा ने कहा कि उसकी उत्कंठा आसमान छू रही थी, बावजूद इसके कि “उसकी प्रयोगशाला का माहौल उसकी जान-पहचान की अन्य प्रयोगशालाओं की तुलना में कम विषाक्त था।” “जब भी मेरे पीआई मुझे बुलाते थे मुझे डर लगने लगता था। प्रयोगशाला में जाने का विचार तक मुझे विक्षुब्ध कर देता था।”

आईआईटी बॉम्बे के शिक्षक गण के एक सदस्य ने कहा कि इन सब के साथ मार्गदर्शन की कमी और ‘प्रकाशित करें या मिट जाएँ’ संस्कृति का अर्थ है कि अंततः ‘अपने काम की परवाह करना’ या काम में आनंद का एहसास करना सामान्य नहीं है। उन्होंने कहा कि पीआई खुद इस अक्षम्य प्रणाली से कड़ी मेहनत कर के गुज़रे हैं। अब वे परिवर्तन के प्रतिरोधी हैं और प्रकाशन के दबाव में हैं।

कई अध्ययनों ने अवसाद की शुरुआत सहित बिगड़े हुए मनोवैज्ञानिक कल्याण और कार्य-तनाव के बीच सम्बन्ध की पुष्टि की है। अध्ययन के अनुसार इसके अलावा काम पर अगर बहुत तनाव हो तो ‘गृहस्थ जीवन’ से जुड़ा कथित तनाव भी बढ़ सकता है।

देखभाल में कमी

आईआईएससी की एक इंटीग्रेटेड-पीएचडी शोध विद्वान, दिशा* याद करती है कि दाखिले के बाद के शुरुआती दौर में जब उसे घबराहट के दौरे आने लगे तो वह परिसर-परामर्शदाता से मिलने गई। आईआईएससी से अब निकल चुके हैं ऐसे एक परामर्शदाता ने दिशा के लक्षणों को ख़ारिज कर दिया और सुझाव दिया कि उसे एनीमिया हो सकता है। उसे ‘रीवाईटल (एक पोषक तत्व पूरक) लेने और अनार खाने की सलाह दी गई’।

उसने बताया कि शिक्षक गण की एक समिति ने उससे पूछा कि “कल तक तो उन्होंने उसे मुस्कुराते और इधर-उधर घूमते हुए देखा था, तो फिर उसे अवसाद कैसे हो सकता है।”

मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी अपर्याप्त समझ संस्थानों में व्याप्त जान पड़ती है और मानसिक बीमारी से निपटने के लिए बुनियादी ढाँचा भी उतना ही अपर्याप्त महसूस होता है।

भारत में देखभाल की बड़ी कमी को दर्शाते हुए, आईआईएससी वेबसाइट के अनुसार वर्तमान में पोस्टडॉक्टरल फेलो और फैकल्टी के अलावा 4,000 से अधिक छात्रों के लिए एक मनोचिकित्सक और दो मनोवैज्ञानिक उपलब्ध हैं। मनोचिकित्सक सप्ताह में दो बार और परामर्शदाता हर रोज़ उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से पिछली गर्मियों में आईआईएससी के दो पीएचडी विद्वानों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया।

पिछले साल आईआईटी मद्रास से इंजीनियरिंग में अपनी पीएचडी की डिग्री हासिल कर चूके एक विद्वान को 2015-16 के दौरान प्रमुख अवसाद से जूझना पड़ा था। उन्होंने उल्लेख किया कि जब वे वहाँ थे, तब 5000 से अधिक छात्र एक मनोचिकित्सक के अलावा कुछ परामर्शदाताओं पर निर्भर थे।

संस्थान द्वारा प्रायोजित मनोचिकित्सक सप्ताह में एक बार आते थे। उनके पास समस्याओं को पूरी तरह से संबोधित करने का समय नहीं होता था। “वे समस्याओं को अस्थायी रूप से दबाने में ज्यादा रुचि रखते थे ताकि आप प्रशासन की नाक में दम न कर दें। इससे विश्वास की कमी होने लगी।”

उन्होंने अपने सहकर्मियों और संकाय के बीच व्यापक धारणा पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि यदि आप ‘सामना नहीं कर सकते, तो आप कमजोर हैं। आप मर्द नहीं हैं।’ जब वे गहरे अवसाद से पीड़ित हो गये और उनकी ऐसी हालात हो गई कि वे अपने हॉस्टल के कमरे से दिनों तक बाहर नहीं निकल पाए, तो कोई भी उन्हें सँभालने नहीं आया।

सामाजिक जुड़ाव: एक समाधान?

जनवरी 2019 में आईआईटी मद्रास के दो छात्रों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया। इनमें से एक घटना रोशनी* के हॉस्टल में हुई थी। रोशनी मानविकी में पीएचडी विद्वान है और उन दिनों को याद करते हुए बताती है: “मुझे इस बात का धक्का लगा कि दो दिनों तक किसी को पता ही नहीं चला कि वह मर चुकी है!”

“यह इस पूरी प्रक्रिया [विज्ञान प्रशिक्षण] में तनहाई की मौजूदगी का सबसे बड़ा उदाहरण है… तनहा होना कितना स्वीकार्य है।” लोग वक्त-बेवक़्त काम करते हैं और सबकी अपनी-अपनी अनुसूची होती है, इसलिए ज्यादातर आपको कोई भी नज़र नहीं आता है।”

आईआईटी मद्रास के प्रशासन की दृष्टिकोण के अनुसार वे इस मुद्दे से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। एम एस शिवकुमार, छात्रों के डीन या दोस्त (डीओएसटी) का मानना है कि यह समस्या आईआईटी में आने वाले छात्रों में भी है। ये छात्र बेहद होनहार और अंतर्मुखी होते हैं। साथ ही इनके घरवालों को इनसे जबरदस्त अपेक्षाएं भी होती हैं।

“हम कई तरह से कोशिश कर रहे हैं” उन्होंने मुझे एक फोन कॉल पर बताया। ‘कई परामर्शदाताओं और एक अतिथि मनोचिकित्सक सहित एक वैलनेस-टीम’ भी है जो अपॉइंटमेंट और ऑन-कॉल, दोनों आधारों पर सेवाएं प्रदान करते हैं। कुछ वरिष्ठ छात्र और शिक्षक सदस्य स्वयंसेवक के रूप में ‘मित्र इनिशिएटिव’ के माध्यम से दूसरों को परामर्श देते हैं।

“पर मुश्किल यह ख़ोज निकालने में है कि कौन समस्याग्रस्त है”, उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा।

जबकि डीन हस्तक्षेप की तलाश में है, रोशनी का मानना है कि अधिक जैविक सामाजिक समबन्धों की जरुरत है। अनुसंधान पत्रों की बढ़ती संख्या सामाजिक जुड़ाव की कमी और अवसाद के बीच की कड़ी को मजबूत करता है।

आईआईटी-एम के वर्तमान पीएचडी विद्वान, जो अतीत में मित्र इनिशिएटिव का हिस्सा रह चुके हैं, कहते हैं कि जबकि इस पहल ने छात्रों की मदद की है, विज्ञान में अलगाव गहरा है और उत्पादकता के बराबर है। इसके विपरीत, मानविकी में सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से ज्यादा जुड़ाव है और इनपर काफी चर्चाएं होती हैं।

संस्थान न जवाबदेही के लिए है और न ही अधिकारों के लिए है 

सकल संस्थानों में विद्वानों ने निरपेक्ष पदानुक्रम के साथ-साथ पीआई या संकाय द्वारा शोषण, उत्पीड़न, अनुचित अपेक्षाओं या विषाक्त व्यवहार के मामले में जवाबदेही की कमी के बारे में बात की है।

2016 में एमएससी की डिग्री प्राप्त करके एनसीबीएस से स्नातक करने वाली सकीना* ने कहा, “पीआई एक तरह से जवाबदेही से मुक्त है। तकनीकी रूप से पीआई के ऊपर विभाग और आचार समिति के प्रमुख हैं, लेकिन वे सभी दोस्त हैं।”

कुछ हद तक पूर्वानुमेय ढंग से दण्ड-मुक्ति संस्थानों के जातिवाद, लिंग उत्पीड़न और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ शिकायतों से निपटने के तरीकों को प्रभावित करता है।

आलिजा* ने आंध्र प्रदेश के जी पुल्ला इंजीनियरिंग कॉलेज से कंप्यूटर विज्ञान की पढ़ाई की है। वह करीब एक दशक पहले बुरखा पहनने के कारण सबकी नज़रों में आने वाली मुस्लिम महिला के रूप में अनुभव किए गए इस्लामोफोबिया के बारे में बताती है। उससे पूछा जाता था कि वह क्यों पढ़ना चाहती है यह जानते हुए कि आखिर में उसकी शादी सऊदी के किसी बन्दे से ही होने वाली है। उसने ‘कमबख्त मुस्लिम महिला’ जैसे कई तानों का सामना किया। यहाँ तक कि उसे तकनीकी समाज में धौंस का सामना करना पड़ा और आखिरकार उसे बाहर निकाल फेंक दिया गया। इन सभी अनुभवों ने उसे स्थायी आघात पहुँचाया।

अभी, जब मैं यह लिख रही हूँ, अल्पसंख्यक समुदायों के कई विद्वानों और छात्रों का उत्पीड़न जारी है। पिछले एक साल से पांडिचेरी विश्वविद्यालय में एक कश्मीरी मुस्लिम पीएचडी विद्वान अपने पीआई द्वारा उत्पीड़न का सामना कर रहा है। पीआई ने उसे दिशा प्रदान करने से इनकार कर दिया और जब भी वह उनके कमरे में प्रवेश करता, वे उसे गालियां देतें। विभाग के मुख्य ने भी उसकी कोई मदद नहीं की।

एक अन्य कश्मीरी विद्वान ने कहा, “वह दूसरे कश्मीरी दोस्तों के साथ वीसी से संपर्क करने की योजना बना रहा था, लेकिन मैंने उसे दूसरे राज्यों के लोगों को भी साथ ले जाने की सलाह दी। दूसरे लोग विरोध करने में स्वतंत्र महसूस करते हैं पर हमें हमारे मुद्दों को खुद तक सिमित रखना पड़ता है”।

आईआईएससी में भी अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जारी है। हाल ही में दलित अनुसंधान विद्वानों को सलाह प्रदान करने के लिए मना कर दिया गया था। कई बार उन्हें प्रयोगशाला में प्रवेश करने से भी रोक दिया जाता था। जब मैंने इस बारे में पूछताछ की तो विद्वानों ने छात्रों के लिए आचार संहिता में जोड़े गए एक नए नियम – मीडिया से किसी भी मामले में बात करने पर प्रतिबंध के चलते कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। यह एक निष्क्रिय अल्पसंख्यक संरक्षण सेल के साथ मिलकर शैक्षणिक समुदाय में उच्च जाति के बहुमत की परंपरा को बनाए रखता है।

आईआईटी मद्रास में 2018 से ‘सतर्कता विभाग’ के सदस्य बिना कोई सूचना दिए छात्रों के कमरों की तलाशी करते हैं। इस बीच एक पीएचडी विद्वान (जो गुमनाम रहना चाहता है) बताता है कि हाल ही में कर्मचारियों / संकायों के बीच के लीक हुए ईमेल में छात्रों के कमरों में गोपनीयता को रोकने का इरादा साफ है – उनका सुझाव यह हैं कि यदि किसी को निजता की इतनी ज्यादा जरुरत है तो ‘उन्हें बाथरूम में जाना चाहिए’। यद्यपि पुरुष छात्रों के कमरों में महिला छात्राएं रात 9 बजे तक आ सकती हैं, खोज की मिसालों से पता चलता है कि छात्रावास के रजिस्टर में अगर किसी छात्रा का नाम नज़र आ जाए तो कमरे की पूरी तरह से तलाशी की जाती है।

जुर्माना लगने वाली चीज़ों में केतली, कंडोम और सिगरेट के टुकड़े शामिल हैं। केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि यह कट्टर रवैया उन वयस्कों पर क्यों थोपा जा रहा है जिन्हें किसी आवासीय घर में रहना चाहिए। “मेरे कुछ सहपाठियों के बच्चे हैं!” उस विद्वान ने कहा। “जब ऐसा आप शैक्षणिक गण के किसी सदस्य के साथ नहीं करते, तो हमारे साथ यह पाखंड क्यों? क्या हमारे कोई अधिकार नहीं हैं?”

निजता की मांग ने मुझे सबसे ज्यादा हैरान किया…” – आईआईटी मद्रास स्टूडेंट्स अफेयर्स टीम के सदस्यों के बीच लीक हुए ईमेल में लिखा गया है।

फिर क्या?

साक्षात्कार में शामिल कई शोध विद्वानों में से एक ने कहा, “परिसर में किसी नए खेल या सप्ताह में एक बार परामर्शदाता की सेवाएं उपलब्ध कराने से मानसिक स्वास्थ्य में सुधर नहीं आता है”। शुद्ध विज्ञान कैसा होना चाहिए, उसकी हमारी छवि को बदलने की जरुरत है।

सूत्रों के अनुसार आईआईटी और आईआईएससी में मास्टर्स और इंटीग्रेटेड-पीएचडी विद्वानों के लिए स्टाइपेंड बंद करने के बारे में चर्चा चल रही है। भारत में विज्ञान के विद्वानों के मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति पहले से ही भयानक है। बढ़ते निजीकरण, अमेरिका और ब्रिटेन में बढ़ते छात्र ऋण और अनिश्चित भविष्य के बोझ के कारण इन विद्वानों की स्थिति में कोई मदद नहीं होगी।

उच्च शिक्षा वैसे भी उच्च वर्गों के ही पक्ष में है। उदाहरण के लिए यदि आप आंध्र प्रदेश के किसी निम्न-आय वाले परिवार से मास्टर डिग्री के लिए आईआईएसटी में आते हैं, तो आपको अपनी शिक्षा मुफ्त करवाने के लिए और अपना सपना (स्नातक डिग्री हासिल होने के बाद इसरो में नौकरी) साकार करने के लिए एक निश्चित सीजीपीए से ऊपर रहने की जरुरत है। यदि आप आवश्यक सीजीपीए से नीचे गिर जाते हैं तो आपको एक सेमेस्टर के लिए 48,000 रूपए देने पड़ते है। पीएचडी विद्वान के रूप में शुरुआती दौर में आपका 32,000 रूपए के स्टाइपेंड से गुज़ारा हो सकता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बढ़ता है यह कठिन होने लगता है। यदि आपको घर पर पैसे भेजने की जरुरत हो या आप पर घर चलाने की जिम्मेदारी हो तो आपकी मदद के लिए वैकल्पिक उपाय शिक्षा प्रणाली की सोच से परे है।

मानसिक स्वास्थ्य शून्य में मौजूद नहीं है। लोग काम से जुड़े तनाव पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, इसे कई कारक प्रभावित करते हैं – जैसे आनुवंशिकी, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और सामाजिक सम्बन्ध। हालाँकि सूने, उच्च दबाव वाले काम के वातावरण और खराब मानसिक स्वास्थ्य जैसे मनोसामाजिक कारकों के बीच सम्बन्ध को अनदेखा करना, बिना उस प्रणाली को गंभीरता से बदले जिस पर शैक्षणिक समुदाय आधारित है – एक ओर पथभ्रष्ट है और दूसरी ओर भारतीय विज्ञान में आत्महत्या से हुई मृत्यु को विक्षेप के रूप में देखने पर जोर देता है।

“स्नातक अनुसंधान की प्रेरक प्रणाली और शक्ति संरचना को बदलने की जरुरत है” एक स्नातक छात्र ने मुझे बताया। “जब तक शैक्षणिक समुदाय इसी तरह से बना रहेगा तब तक हम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से निपटने में सक्षम नहीं होंगे”।

एनसीबीएस में पाँच महीने तक नम्रता की मौत की कोई खबर बाहर नहीं आई। उसी के जैसे दूसरे विद्वान जो उसके करीब नहीं थे, कहते हैं कि कम से कम स्थिति “आईआईएससी की तुलना में बेहतर” है।

नम्रता कोई आँकड़ा नहीं थी। इस तरह के एक लेख में यह भूलना आसान है। “मुझे नम्रता के बारे में कुछ ऐसा बताइए जिसका उसकी मौत से कोई लेना-देना नहीं है।” मैंने उसके दोस्त, सहकर्मी और राजेश को मैसेज किया। उन्होंने घंटों बाद जवाब दिया – काम से अभिभूत रहना।

“वह बहुत दयालु थी। वह दूसरों को खुद से पहले रखती थी और किसी भी गलती के लिए खुद ही जिम्मेदारी ले लेती थी। वह वास्तव में कलात्मक थी – विशेष रूप से पेपर क्विलिंग में। उसने बायोइनफॉरमैटिक्स में मास्टर डिग्री हासिल की थी। इसलिए जब भी हमें कोडिंग और बायोइनफॉरमैटिक्स सॉफ़्टवेयर में मदद की जरुरत पड़ती तब हम उसी के पास जाते थे। उसे फलों से बने डेसर्ट से नफरत थी। बहुत ज्यादा नफरत। न ब्लूबेरी डेनिश न आम के फ्लेवर वाला दही और न ही सीताफल आइसक्रीम। वह उन्हें चखती भी नहीं थी। सबसे महत्वपूर्ण बात, वह ऐसी लड़की थी जिस पर आप भरोसा कर सकते थे।”


लेखक जैव: रिद्धि दास्तिदार दिल्ली में स्थित एक कवि और पत्रकार हैं। वह अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एमए लिंग अध्ययन की स्नातकोत्तर छात्रा हैं। आप उनके काम, उनकी बिल्लियों या लिंग-सिद्धांत के प्रति उनकी रूचि के बारे में और अधिक जानकारी के लिए उन्हें @gaachburi पर फॉलो कर सकते हैं।

संपादक का नोट: तारांकन चिह्न (*) व्यक्तियों की पहचान को गोपनीय रखने के लिए नाम बदले गए हैं। (जो संकट में हैं या आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले लोग मदद के लिए आरोग्य सहायवाणी 104 पर कॉल कर सकते हैं – कर्नाटक) हेल्पलाइन नंबर भी यहां उपलब्ध हैं।

This piece is part of a series supported by India Alliance.

About the author(s)
Riddhi Dastidar

Riddhi Dastidar is a Delhi-based poet and journalist. She is a post-graduate student of MA Gender Studies at Ambedkar University Delhi. You can follow her @gaachburi to see more of her work, her cats or her nerdy love of gender-theory.