रिपोर्ट द्वारा : नंदिता जयराज
हिंदी अनुवाद : आशुतोष पाण्डेय
कौन ? डॉक्टर सुषमा अगरवाल
पद : प्रोफेसर/गणितज्ञ
कहाँ ? : रामानुजन इंस्टिट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडी इन मैथमेटिक्स, चेन्नई
पुलिस वैन, बैरिकेड और प्रदर्शनकारियों के छोटे-मोटे झुण्ड को चीरते हुए मैंने अपने कदम मद्रास यूनिवर्सिटी के मैथ्स डिपार्टमेंट की ओर बढ़ाये| एक शांतिपूर्ण विद्रोह की महक हवा में थी| यहाँ पर बहुत सारे सरकारी संस्थानों का समूह है जिसमे की १४९ साल पुराना मद्रास विश्वविद्यालय का मुख्य कैंपस भी शामिल है| शायद यही वजह है की इस इलाके में अमूमन ऐसे प्रदर्शन चलते ही रहते हैं|
दो नोबेल पुरस्कार विजेता, एक भूतपूर्व राष्ट्रपति और विश्व विख्यात गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन इस विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों में शामिल हैं| यहाँ के गणित विभाग का नाम भी श्री रामानुजन जी से ही प्रेरित है, जो की मेरी अगली मंजिल थी| रामानुजन इंस्टिट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडी इन मैथमेटिक्स की छोटी सी जर्जर ईमारत मुख्य आलिशान ईमारत से कुछ दूरी पर थी| इसकी बाहर की दीवारें राजनैतिक पोस्टरों एवं ग्राफिटी के अवशेषों से भरी पड़ी हुई थी| कुछ छात्र और दो पुलिसवाले जो शायद अपनी गश्त से लौट रहे थे, उनसे होते हुए मैं अंदर घुसी|
सुषमा जी ने अंदर घुसते ही एक सतर्क सी मुस्कान देते हुए मेरा स्वागत किया| उनका जन्म और परवरिश भुसावल नामक महारास्ट्र के छोटे से कस्बे में हुई और उसके बाद वो सन १९८८ में पीएचडी की डिग्री लेने चेन्नई जा पहुँचीं| पिछले दो दशक से वो रामानुजन इंस्टिट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडी में ही प्रोफ्फेसर हैं| गणित की सैद्धांतिक शाखा ‘फंक्शनल एनालिसिस’ में इन्हें महारत हासिल है|
काफी सारी उपयोगिताओं वाला एक आईडिया
“फंक्शनल एनालिसिस में हम किसी भी प्रक्रिया को गणित के फंक्शन के रूप में दर्शाते हैं”, सुषमा| “इस प्रकार हम किसी भी प्रयोग अथवा प्रणाली के व्यवहार का पूर्वानुमान लगा सकते हैं| फंक्शनल एनालिसिस की ये खूबी हमे इकोनिमिक्स इंजीनियरिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में बेहतर फैसले लेने में सहायक साबित होती है”|
एक लेख का कुछ अंश जो की फंक्शनल एनालिसिस की उपयोगिता और उद्गम पर बहुत ही खूबसूरती से प्रकाश डालता है नीचे प्रस्तुत है|
“Mathematicians observed that different problems from varied fields often have related features and properties. This fact was used for an effective unifying approach towards such problems, the unification being obtained by the omission of unessential details. Hence the advantage of an abstract approach is that it concentrates on the essential facts, so that these facts become clearly visible and one’s attention is not disturbed by unimportant details. Moreover, by developing a box of tools in the abstract framework, one is equipped to solve many different problems (that are really the same problem in disguise!).
For example, while fishing for various different species of fish (bass, sardines, perch, and so on), one notices that in each of these different algorithms, the basic steps are the same: all one needs is a fishing rod and some bait. Of course, what bait one uses, where and when one fishes, depends on the particular species one wants to catch, but underlying these minor details, the basic technique is the same. So one can come up with an abstract algorithm for fishing, and applying this general algorithm to the particular species at hand, one gets an algorithm for catching that particular species. Such an abstract approach also has the advantage that it helps us to tackle unseen problems. For instance, if we are faced with a hitherto unknown species of fish, all that one has to do in order to catch it is to find out what it eats, and then by applying the general fishing algorithm, one would also be able to catch this new species.
[स्त्रोत: Notes by Amol Sasane for London School of Economics]
शैक्षिक करियर अपने आप में ही किसी व्यक्ति को नाकों चने चबवाने के लिए काफी है| सुषमा जी जिन्होंने कॉलेज के दिनों में ही अपनी आँखों की रौशनी खो दी, उनके लिए तो ये मानो एक विशालकाय पहाड़ चढ़ने के समान था| मैं सुषमा जी से उनकी बीमारी का नाम पूछना तो भूल गयी मगर इन्टरनेट पर प्राप्त जानकारी के हिसाब से इस बीमारी का नाम retinitis pigmentosa है, ये एक आनुवंशिक बीमारी है जिसमे की रेटिना की रोड और कोन कोशिकाएं मर जाती हैं| ऐसा होने से आँखें प्रकाश को नर्व इम्पल्सेस में बदलने की अपनी क्षमता खो बैठती हैं और हमारे दिमाग में चित्र बनना बंद हो जाते हैं| रिपोर्ट्स के मुताबिक पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले भारत में ये बीमारी दस गुना ज्यादा प्रचलित है और लगभग दो लाख भारतियों को अपना शिकार बना चुकी है| सुषमा जी के हिसाब से उनकी दृष्टी स्कूल के दिनों से ही क्षय होना शुरू हो गयी थी| “मैं किताबों से तो पढ़ पाती थी पर ब्लैकबोर्ड पर लिखा हुआ कुछ भी पढ़ पाना मेरे लिए असंभव था, एमएससी तक पहुचते-पहुचते मैं अपनी ये क्षमता भी खो बैठी” सुषमा|
सुषमा जी को शुरू से ही उन विषयों में खासी रूचि थी जिनमे तार्किक क्षमता का प्रयोग हो| शायद इसी कारण से गणित उनको इतना प्रिय था| गणित ही एकमात्र ऐसा विषय था जो वो सम्पूर्ण ढंग से समझ पातीं, चूकिं फिजिक्स और केमिस्ट्री में लैब के प्रयोग करने पड़ते थे जो की उनके लिए काफी मुश्किल काम था| “इसीलिए मैंने गणित को चुना” हलके से विराम के बाद उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा, “अगर मैं देख पाती तो भी शायद इसे ही चुनती”|
भुसावल में अपनी बीएससी पूरी करने के बाद उन्हें अपना भविष्य कुछ धुधला सा लगने लगा था| कुछ साल पहले ही उनके पिताजी का स्वर्गवास हुआ था| उनके सारे भाई बहन घर से दूर ही रहते थे और उस समय सुषमा जी अपनी माँ के साथ घर पर ही रहतीं थी| उस समय उच्च शिक्षा के ज्यादा विकल्प मजूद नहीं थे और फिर घर छोड़ते ही उन्हें किसी न किसी की मदद की आवश्यकता जरूर पड़ती| इन्ही सब परिस्तिथियों से संघर्ष करते हुए उन्होंने जीवन के दो वर्ष गुजार दिए – “मैं घर पर बिना कुछ किये ही बोर हो रही थी”, सुषमा|

जीवन बदल देने वाला एक मोड़ और एक हमेशा साथ निभाने वाला एक साथी|
सुषमा जी की एक मित्र परास्नातक की पढाई के लिए उनके साथ एक दूसरे शहर चलने को राजी हो गयीं| उनकी मित्र के इस फैसले से उनकी जिंदगी ने जैसे एक दूसरा ही रुख ले लिया| वहां वो अपने एक शिक्षक से मिलीं जो की आगे चल कर उनके पति बनने वाले थे| “उन्होंने गौर दिया की जब भी शिक्षक बिना बोले बोर्ड पर कुछ लिख देते थे तो मुझे दिक्कत होने लगती थी| ऐसे मौकों पर लय टूट जाती है और कुछ भी समझ पाना मेरे लिए नामुमकिन होता है”| वीरामणि जी ने उनकी इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए सारे पाठ बोल-बोल कर पढ़ाने शुरू कर दिए जिस से की सुषमा जी अपने बाकी सारे सहपाठियों के समानांतर चल पायें|
इसके परिणाम-स्वरुप उनकी रुचि वीरामणि जी की क्लासों में बढ़ने लगी| वीरामणि जी ने उनकी इस निष्ठा का स्वागत ही नहीं किया बल्कि कदम-कदम पर उन्हें प्रोत्साहित भी करने लगे| सोना आग में तप-तप कर बेहरतीन आभूषण बन जाता है, इन सब घटनाक्रम का मानो सुषमा जी पर भी वैसा ही कुछ प्रभाव पड़ा| जीवन में पहली बार उन्हें लगने लगा की वो वास्तव में गणित से अपने इस अटूट प्रेम को एक डाक्टरेट में तब्दील कर सकती हैं|
सुषमा और वीरमणि सन १९८८ में दांपत्य जीवन के पवित्र सूत्रों में बंधकर चेन्नई पहुच गए| वहां वीरमणि जी ने आई आई टी चेन्नई में प्रोफेसर का पद पा लिया| कड़ियों से कड़ियाँ मिलती गयीं और सुषमा जी ने भी आई आई टी चेन्नई में ही अपने पीएचडी के गाइड ढूंढ लिए| सन १९९६ में उन्होंने अपनी पीएचडी पूरी की| कुछ अख़बारों के हिसाब से ऐसा करने वाले दो नेत्रहीन छात्रों में से वो प्रथम थीं| इतने ऊचे पद पर पहुचने के बावजूद सुषमा जी बिलकुल साधारण और सौम्य रहना पसंद करतीं हैं. “ऐसा नहीं था की ये सब करने की मेरी पहले से ही कोई योजना थी| मैंने एक समय में एक काम किया और पूरे समर्पण के साथ किया|
कठिनाइयाँ तो हैं !
नेत्रहीन बच्चों के लिए बनी संस्थाओं के द्वारा आयोजित किये हुए कार्यक्रमों में जाने और ऐसे बच्चों से बातें करने में वो थोडा संकोच करती हैं – “मैं काफी शर्मीले स्वभाव की हूं” हल्की सी मुस्कान के साथ उन्होंने स्वीकार किया| पर इस मुस्कान के पीछे भी कुछ पर्याय था| “ मैं ये नहीं चाहती की बच्चे गणित को तब चुने जब की उनके पास कोई और विकल्प न हो| यह एक समस्या होगी| मैं चाहती हूं की वो इस बात को समझें की उन्हें जीवन में कुछ अतिरिक्त परेशानियां तो झेलनी ही पड़ेंगी”|
“अक्सर ऐसा होता है की मैं पढ़ना चाहती हूं पर मेरे आस पास कोई मुझे पढ़ के सुनाने के लिए नहीं होता| मैं कुछ खोजना चाहती हूं पर अपने आप से खोज नहीं पाती| पर इन् सारी परेशानियों का उपाय हमे खुद की सोचना पड़ता है”| दूसरों पर निर्भर रहना आखिरकार कौन पसंद करेगा| “ अगर मुझे कोई क्लास लेनी है तो पहले तो तैयारी करनी पड़ती है| उसके बाद किसी छात्र को बोर्ड पर लिखने के लिए भेजना पड़ता है| कई छात्रों को बोर्ड पर जाना पसंद भी नहीं होता, मेरे बोलने और उनके लिखने के बीच अगर तालमेल न हो तो बहुत ही दिक्कत होती है…| किसी पर निर्भर न रहना ज्यादा बेहतर है न ?”
“कभी-कभी मैं ऐसा सोचती हूं की वो (नेत्रहीन छात्र) और बहुत से काम कर सकते हैं जिसमे दूसरों पर निर्भर रहने की आवश्यकता कम पड़े|”
सुषमा जी का सबसे संघर्षमय दौर वह था जब उन्हें पीएचडी करने के बाद नौकरी मिलने में तमाम परेशानियां उठानी पड़ी| “मैंने बहुत से कॉलेजों में आवेदन किया पर कहीं से भी इंटरव्यू के लिए मुझे नहीं बुलाया गया, उन दिनों ये सबके लिए ही कठिन था परन्तु ये बात भी साफ़ थी की मुझे मेरी समस्या की वजह से नज़रअंदाज़ किया जा रहा था”| तत्कालीन कुलपति, जो की तमिल साहित्य के प्रोफ्फेसर भी थे उनका भी एक छात्र द्रष्टिहीन था इसीलिए वो जानते थे की ऐसा प्रबंध किया जा सकता है| सुषमा जी को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया| सुषमा जी ने शिक्षण और संशोधन संबंधी कार्यों से जुड़ी हुई निर्णायक मंडल की शंकाओं का बहुत ही संतोषजनक तरीके से जवाब दिया|
क्या आप ज़रा सी भी चिंतित नहीं हुईं?, मैंने उनसे पूछा| उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया “ मैं थोड़ी डरी हुए तो थी, पर पढ़ाने को ले के नहीं बल्कि इस विचार से की कभी-कभी मुझे दूसरे कालेजों के पेपर्स का मूल्यांकन करना पड़ सकता है| हालाकि ऐसे काम अनिवार्य नहीं होते पर फिर भी मुझे डर था की मुझे ये सब करना ही पड़ेगा”| सुषमा जी ने इस बात पर जोर दिया की उनके जैसे दृष्टिहीन लोगों को शिक्षा और शोध जैसे क्षेत्र में टेक्नोलॉजी, सुलभता और खास ख्याल की जरूरत पड़ती है, पर ऐसे लोग बहुत ही जल्दी सीखते हैं| “मैं काफी एकाग्र हूं और मेरी यादाश्त भी अच्छी है| मैं बहुत ही ध्यान से सुनती हूं और तुरंत सीख जाती हूं”|
गणित की कुछ थेओरेम्स और उनके प्रूफ को बार-बार सुनने के लिए सुषमा जी अपने रिकॉर्डर का इस्तेमाल करती हैं, हालाकि इसको छोड़ कर वो टेक्नोलॉजी से कोई ख़ास इतेफाक नहीं रखतीं| परंतु उनका मानना है की टेक्नोलॉजी में तेजी से होती प्रगति दृष्टिहीनो के लिए वरदान साबित हो सकती है| आजकल गणित के लिए भी ब्रेल लिपि उपलब्ध है, पर सुषमा जी उसका इस्तेमाल नहीं करतीं| उन्हें कभी इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी, चूँकि वो जन्म से दृष्टिहीन नहीं थीं और यदि कोई उनकी हथेली पर गणित के चिन्ह बनाये तो वो आसानी से पहचान लेती हैं|
एक मददगार सहायिका और दोस्त
सुषमा जी के अलावा एक और भी महिला पूरे इंटरव्यू के दौरान कमरे में मजूद थीं| पहले मुझे लगा वो भी यहीं की कोई शिक्षिका हैं, बाद में सुषमा जी ने मुझे उनसे मिलवाया| वो सुषमा जी की सहायिका कमली नटराजन हैं| कमली अब लगभग चार साल के सुषमा जी के साथ हैं| “मैं सुबह उन्हें लेने जाती हूं, यहाँ दिन भर उनके साथ बैठती हूं और फिर उन्हें उनके घर छोड़कर अपने घर जाती हूं”, कमली ने तमिल और अंग्रेजी मिश्रित भाषा में कहा| “ मैम के पास आने से पहले मैं एक गृहणी थी”|

सुषमा जी ने मुझे बताया की जल्दी शादी होने के कारण कमली ने दसवीं के बाद से पढाई नहीं करी| दोनों बच्चों की शादी के बाद उनके पास काफी खाली समय था| इसीलिए जब उन्होंने अपने पड़ोस में एक दृष्टिहीन प्रोफेसर की सहायिका के लिए विज्ञापन देखा वो तुरंत सुषमा जी से मिलने चली आयीं| “अब मैडम और मैं एक दोस्त की तरह हैं, और अगर मैं उनसे दो-तीन दिन न मिलूँ तो उनकी याद आने लगती है”, कमली ने बड़ी सी मुस्कान देते हुआ कहा| “और बेशक तन्खाह भी बहुत ही मददगार साबित होती है!”
जो शिक्षा के क्षेत्र से न हो ऐसे इंसान को ऐसी जगह पर जो इस क्षेत्रों के दिग्गजों से भरी पड़ी हो अपना सारा समय बिता कर कैसा लगता है? कमली ने कुछ बनावटी डर की मुखाकृति बनाते हुए बोलना शुरू किया| “गणित बहुत ही कठिन विषय है, बहुत ही कठिन| अगर आप यहाँ के छात्रों को देखें तो पायेंगी की वो हमेशा गंभीर ही रहते हैं| दूसरे कालेजों के छात्र आपको फिल्मों और राजनीती की बातें करते हुए मिलेंगे| यहाँ के छात्र केवल और केवल गणित की ही बातें करते हैं”| इस समय सुषमा जी अपनी हसी रोकने की पूरी कोशिश कर रहीं थीं| “मुझे ऐसा लगता है की इन सबका दिमाग ठंडा करने के लिए कभी-कभी इन्हें किसी झरने पर ले के जाऊं| ये लोग ज़रुरत से ज्यादा ही गंभीर रहते हैं … पर हैं सब के सब अद्भुत!”, कमली ने नाटकीय भाव से कहा| सुषमा जी की हसी का बाँध अब तक टूट चुका था|
जैसे ही मैं अपनी चाय ख़त्म करके जाने के लिए उठी तो देखा की सुषमा जी चिंतामग्न हैं| अगर मैं शुरू से ही किसी संस्था (दृष्टिहीनों के लिए बनाई हुई) का हिस्सा होती तो मैंने भी उन् सारी गतिविधियों में भाग लिया होता-वो लोग ट्रैकिंग के लिए जाते हैं और सड़क पर लगभग आम इंसान की तरह ही चलते हैं| मैं कभी अकेली नहीं जाती| हमेशा किसी न किसी के साथ ही बाहर जाती हूं| पर मुझे बस एक स्पर्श की ही जरूरत होती है फिर मैं उसके साथ बराबरी से चल सकती हूं|
रामानुजन इंस्टिट्यूट का अब तक का सफ़र
रामानुजन इंस्टिट्यूट कुछ ऐसे तरीके से गणित पढ़ाता है जो की भारत में कम ही जगह देखने को मिलता है| सुषमा जी के हिसाब से, “पढने के लिए नोट्स देने की बजाय हम कॉन्सेप्ट्स पर जोर देते हैं| दूसरी जगहों पर ऐसा नहीं होता क्यूंकि वो शत प्रतिशत परिणाम चाहते हैं| हमारे ऐसा करने से छात्रों के लिए पहले सेमेस्टर में थोड़ी मुश्किलें हो सकती हैं पर आगे चल कर इस बात का बहुत ही गूढ महत्त्व है|
जब मैं एक छात्रा थी तब बहुत ही कम लडकियां गणित चुनती थी| आज उनकी एमएससी की कक्षा में लगभग तीन चौथाई लडकियां हैं| ”शायद ऐसा इसलिए हो क्यूंकि नौकरी करने का दवाब लड़कों पर ज्यादा होता है(ग्रेजुएशन के बाद)| लगभग तीस छात्र-छात्राओं की क्लास में से कम से कम ५ या ६ छात्र-छात्रा पीएचडी करने जरूर जाते हैं”, सुषमा जी ने कहा|
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